Saturday, March 7, 2009

इनके हिस्से की रोशनी कौन देगा...

(इस छाया चित्र को बड़ा करने तथा इसपर छपी सामग्री पढ़ने हेतु इस पर डबल-क्लिक करें)यह चित्र भेजा है हमारे एक साथी ने जिसे दैनिक हिंदुस्तान से साभार लिया गया है। इसमें देश में गुरबत और मुफलिसी के बीच भी शिक्षा पाने की ललक दिल में सँजोए स्ट्रीट लाईट के नीचे पढने वाले जिन बच्चों की तस्वीर है, वही सच्चा भारत है। ऐसे ही बच्चे अपनी लगन और मेहनत के बल पर आज भी विश्व भर मे भारतीय प्रतिभा का झंडा बुलंद करते हैं चाहे वो विज्ञानं का क्षेत्र हो या चिकित्सा का, व्यापार हो या मीडिया। भारतीय प्रतिभा कभी भी सुविधाओं की मुंहताज नहीं रही। घनघोर जंगलों मे भी पड़े रहकर जिन शास्त्रों की रचना कर दी गयी है उसपर अभी सदियों तक शोध होते रहेंगे। मगर इसका अर्थ यह तो नहीं कि ऐसी प्रतिभाओं को समाज न्यूनतम सुविधाएँ भी ना दे सके। गरीबी एक असंतुलित सामाजिक अर्थव्यवस्था की देन होती है। कुछ लोग इसका फायदा उठाकर भले ही इन बच्चों के सामाजिक हिस्से की रोशनी चुरा लें, मगर इनकी उन आंखों की ललक का क्या करेंगे जिसमें दुनिया के हर ज्ञान को पा लेने की तृष्णा छिपी है, जो गरीबी की अँधेरी गलियों मे भी सही राह चुन ही लेती हैं। सरकारी स्कूलों के बच्चों के पास भले ही चमचमाते जूते ना हों, अच्छे टिफिन बॉक्स ना हों, किताबें भी बड़े भाई की पिछले साल वाली ही हों, मगर उनमें कहीं ना कहीं जंगलों मे उगने वाले उन बिरवों की तरह, जिन्हें अपने आस पास कभी कोमल ज़मीन भी नहीं मिलती, जिनको एक एक बूँद पानी, खुरदुरी ज़मीन से खींचने के लिए अपने 'फेफड़ों' की पूरी ताकत लगानी पड़ती है और जो एक छटांक धूप के लिए भी दिन भर हवा का एक झोंका निहारते हैं, उनमें और कुछ हो चाहे ना हो, ऊँचे से ऊँचे दरख्तों से होड़ करने का जज्बा तो जरूर होता है। दूसरी तरफ़ ऐसे "बबुए" होते हैं जो सुंदर गमलों मे पाले जाते हैं। तमाम "केयर", "आर्गेनिक मैन्योर" त्तथा मालियों की फौज के बावजूद जिनको रोज सींचने की जरूरत पड़ती है। हम जंगलों में, झाड़-झंखाड़, झुग्गी --झोपड़ियों तथा सुदूर, सुविधाहीन देहातों में किसी जंगली कीकर, बबूल जैसी अपने आप उग निकलने वाली ऐसी ही प्रतिभाओं को पालने वाले बागवान हैं जो सरकारी स्कूलों मे पलती रही है, जो फटी टाट-पट्टी पर भी बैठी है और देश के सर्वोच्च पदों पर भी। हम इसी जज्बे को सलाम करते है और ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि तमाम अपनी समस्याओं के बावजूद हम इन चिरागों को अपनी हथेलियों मे छुपाते रहें, इनको बुझने ना दें जिनमें हमने एक चिंगारी जगा दी है पढने की , पढ़कर कुछ करने की।